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वो मिट्टी के घर में लिपा हुआ गेरू और खटिया पर फटा चादर बिछा
यहाँ पक्के घर में रेशमी क़ालीन, बाहर हरा भरा गालिचा।।
वहाँ काली रात और आले मे रखा टिमटिमाता दिया
यहाँ चमचमाता शहर फिर भी क्यूँ जलता है जिया।।
वो मेरा क़स्बा वो मेरा देश
ना जाने कितनी भाषा
ना जाने कितने भेष ।।
सर के दर्द तक में पड़ोसियों का पूछना हाल
यहाँ यूँ तो हैं बड़े बड़े doctor और विशाल अस्पताल
फिर भी कराहता रह जाता हुँ मैं और दिल रहता है बेहाल ।।
वो होली वो दिवाली वो ईद वो बैसाखी
वो मामी वो ताई वो बुआ वो काकी ।।
वो रेवड़ी वो पेड़े वो तिल के लड्डू
वो दादा का कुर्ता वो दादी का नज़र बट्टू ।।
पापा की आँखो का वो सूनापन
माँ के दिल की वो अंजनी धड़कन ।।
वो निशब्द घर की चौखट पर खड़ी छोटी बहन
सोचकर रोता हुँ तड़पता हुँ फिर कर देता हुँ दहन।।
भाग जाऊँ आज ही तोड़कर ये सारे बंधन
छोड़कर ये सोने के महल ये झूटे आलंगन।।
गया तो था करने अपने सारे सपनो को पूरा
लौट रहा हूँ बनकर एक इंसान अधूरा।।
अब ना यहाँ को अपना पाया ना वहाँ को छोड़ पाया
ना इस देश से रिश्ता तोड़ पाया ना उस देश से जोड़ पाया।।
- आकाश मिश्रा