Saturday, April 4, 2020

ये वक्त ऐसा है

कहीं घोर सन्नाटा कहीं सूनी राह
कहीं बच्चों की किलकारी कहीं नासबूर की आह
मेरा वतन पहले मंदिर था अब बे इख़्तियार तख़्त जैसा है
सम्भलना है हमें क्या करें ये वक्त ऐसा है

अपनों की बज़्म ना कोई कमी है
ना जाने क्यू आंखों में फिर भी नमी है
शायद ये जंग का खेल एक सूखे दरख्त जैसा है
सम्भलना है हमें क्या करें ये वक्त ऐसा है

ना कोई जात है इसकी ना अक़ीदाह ए ईमान
ज़हीर साथ हैं और बंद रिहाइश में जीने में हमारी शान
ये एहसास कहीं जैसे नर्म कहीं सख्त जैसा है
सम्भलना है हमें क्या करें ये वक़्त ऐसा है

नासबूर= अधीर, व्याकुल
बे इख्त़ियारी= असहाय
बज़्म= सभा, टोली (दावत या मनोरंजन के लिये)
अक़ीदाह ए ईमान= धर्म
ज़हीर= साथी, मित्र, सहयोगी

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